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Friday 31 January 2014



26 जनवरी 1950 को भारत एक गणतंत्र होगा यानि इस दिन से देश जनता के लिए जनता से जनता के द्वारा संचालित होगा. लेकिन यहाँ भी मेरे मन में वहीँ विचार आता है कि देश के जनतंत्र का क्या होगा? क्या हमारा देश गणतंत्र को संभाल पायेगा या वह इसे खो देगा? यह दूसरा विचार भी मुझे पहले की ही तरह बेचैन कर देता है. ऐसा नहीं है कि भारत यह नहीं जानता कि गणतंत्र क्या है? एक समय था जब भारत में बहुत से गणतंत्र हुआ करते थे, यहाँ तक कि राजतंत्र में राजा का पद भी चुनाव से ही निर्धारित होता था. ऐसा भी नहीं कि भारत संसद और संसदीय कार्यप्रणाली से अनभिज्ञ था. यदि हम बौद्ध भिक्खु संघ का अध्ययन करें तो पाते हैं कि संघ गणतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप ठीक वैसे ही कार्य करते थे जैसे आधुनिक गणतंत्र. उनके बैठने, प्रस्ताव पारित करने, कोरम, व्हिप, वोटों की गिनती, निंदा प्रस्ताव और अन्य नियम बुद्ध ने संघ के लिए निर्धारित किये थे, शायद उन्होंने ये सारे नियम प्रचलित गणतंत्रो से ही लिए होंगे. भारत में एक समय बाद यह जनतांत्रिक व्यवस्था लुप्त हो गयी. क्या अब यह दूसरी बार भी लुप्त हो जायेगी? मैं नहीं जानता, लेकिन भारत जैसे देश जहाँ हजारों साल तक जनतंत्र नष्ट रहा वहाँ दोबारा जनतंत्र का आगमन एक नई घटना है. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि गणतंत्र को जिस बात से खतरा है वह तानाशाही है. भारत जहाँ गणतंत्र अपने शैशव अवस्था में है वहाँ यह संभावना है कि देश में उपरी तौर पर तो लोकतंत्र रहे पर असल में तानाशाही स्थापित हो जाए. इस बात कि काफी हद तक सम्भावना है. मेरे हिसाब से इसके लिए सबसे पहले यह ज़रूरी होगा कि हम अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को ही अपनाए. इसका मतलब हुआ कि यह ज़रूरी है कि हमें क्रांति के लिए खूनी संघर्ष के रास्ते को त्यागना होगा. यानि अब हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रहों को भी त्यागना होगा. जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीके नहीं बचते तब किसी रूप में असंवैधानिक तरीकों को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है. लेकिन इन तरीकों को हमें अराजकता फ़ैलाने वाला समझ कर इन्हें अपना लक्ष्य हासिल करने के बाद तुरंत ही छोड़ दिया जाना चाहिए. हमारे लिए यही बेहतर होगा. दूसरी बात भारत हमेशा से ही भक्ति और श्रद्धा कि मानसिकता का पालन करता रहा है, जिससे नायक पूजा का मार्ग प्रशस्त होता है. नायक पूजा अंततः तानाशाही को ही जन्म देती है. तीसरी बात कि हम सिर्फ राजनीतिक गणतंत्र के बारे में ही नहीं सोचे बल्कि हमें अपने राजनीतिक गणतंत्र को सामाजिक गणतंत्र भी बनाना होगा. राजनीतिक गणतंत्र तब तक कायम नहीं रह सकता जब तक कि उसका आधार सामाजिक गणतंत्र न हो. प्रश्न उठता है कि सामाजिक गणतंत्र आखिर क्या होता है? यह जीवन की वह शैली है जिसमें जीवन का सिद्धांत समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व हो. इन तीनों तत्वों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. भारतीय सन्दर्भ में समता का कोई नामो-निशान नहीं हैं सामजिक रूप से यहाँ वर्गीकृत असमानता है, मतलब एक जाति दूसरी से ऊँची या नीची है. आर्थिक आधार पर देखे तो यहाँ कुछ लोग अपार धन-दौलत वाले हैं तो कुछ भीषण गरीबी से जूझ रहे हैं. 26 जनवरी 1950 को हम ऐसे विरोधाभास में प्रवेश कर रहे हैं. राजनीति में हम समता मिलेगी पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमें विषमता मिलेगी. राजनीति में हम एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अपनाएंगे लेकिन अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता पायेंगे क्योंकि वहाँ हमारी सामाजिक संरचना के अनुरूप हम एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को खारिज करते हैं. आखिर हम कब तक सामाजिक-आर्थिक जीवन में समता को खारिज करते रहेंगे? यदि हम लंबे समय तक समता को नहीं स्वीकारेंगे तो हमारा राजनीतिक गणतंत्र भी लंबे समय तक कायम नहीं रह पायेगा. हमें इस विरोधाभास को जितना जल्द हो दूर करना होगा नहीं तो वे लोग जो विषमता का शिकार हो रहे हैं इस राजनीतिक गणतंत्र की संरचना को उखाड फेकेंगे जिसे इस देश की संसद ने बड़ी मेहनत से तैयार किया है.




26 जनवरी 1950 को भारत एक गणतंत्र होगा यानि इस दिन से देश जनता के लिए जनता से जनता के द्वारा संचालित होगा. लेकिन यहाँ भी मेरे मन में वहीँ विचार आता है कि देश के जनतंत्र का क्या होगा? क्या हमारा देश गणतंत्र को संभाल पायेगा या वह इसे खो देगा? यह दूसरा विचार भी मुझे पहले की ही तरह बेचैन कर देता है.

ऐसा नहीं है कि भारत यह नहीं जानता कि गणतंत्र क्या है? एक समय था जब भारत में बहुत से गणतंत्र हुआ करते थे, यहाँ तक कि राजतंत्र में राजा का पद भी चुनाव से ही निर्धारित होता था. ऐसा भी नहीं कि भारत संसद और संसदीय कार्यप्रणाली से अनभिज्ञ था.
यदि हम बौद्ध भिक्खु संघ का अध्ययन करें तो पाते हैं कि संघ गणतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप ठीक वैसे ही कार्य करते थे जैसे आधुनिक गणतंत्र. उनके बैठने, प्रस्ताव पारित करने, कोरम, व्हिप, वोटों की गिनती, निंदा प्रस्ताव और अन्य नियम बुद्ध ने संघ के लिए निर्धारित किये थे, शायद उन्होंने ये सारे नियम प्रचलित गणतंत्रो से ही लिए होंगे.
भारत में एक समय बाद यह जनतांत्रिक व्यवस्था लुप्त हो गयी. क्या अब यह दूसरी बार भी लुप्त हो जायेगी? मैं नहीं जानता, लेकिन भारत जैसे देश जहाँ हजारों साल तक जनतंत्र नष्ट रहा वहाँ दोबारा जनतंत्र का आगमन एक नई घटना है. लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि गणतंत्र को जिस बात से खतरा है वह तानाशाही है.
भारत जहाँ गणतंत्र अपने शैशव अवस्था में है वहाँ यह संभावना है कि देश में उपरी तौर पर तो लोकतंत्र रहे पर असल में तानाशाही स्थापित हो जाए. इस बात कि काफी हद तक सम्भावना है.
मेरे हिसाब से इसके लिए सबसे पहले यह ज़रूरी होगा कि हम अपने सामाजिक और आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीकों को ही अपनाए. इसका मतलब हुआ कि यह ज़रूरी है कि हमें क्रांति के लिए खूनी संघर्ष के रास्ते को त्यागना होगा. यानि अब हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रहों को भी त्यागना होगा.
जब आर्थिक और सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए संवैधानिक तरीके नहीं बचते तब किसी रूप में असंवैधानिक तरीकों को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है. लेकिन इन तरीकों को हमें अराजकता फ़ैलाने वाला समझ कर इन्हें अपना लक्ष्य हासिल करने के बाद तुरंत ही छोड़ दिया जाना चाहिए. हमारे लिए यही बेहतर होगा.
दूसरी बात भारत हमेशा से ही भक्ति और श्रद्धा कि मानसिकता का पालन करता रहा है, जिससे नायक पूजा का मार्ग प्रशस्त होता है. नायक पूजा अंततः तानाशाही को ही जन्म देती है.
तीसरी बात कि हम सिर्फ राजनीतिक गणतंत्र के बारे में ही नहीं सोचे बल्कि हमें अपने राजनीतिक गणतंत्र को सामाजिक गणतंत्र भी बनाना होगा. राजनीतिक गणतंत्र तब तक कायम नहीं रह सकता जब तक कि उसका आधार सामाजिक गणतंत्र न हो. प्रश्न उठता है कि सामाजिक गणतंत्र आखिर क्या होता है?
यह जीवन की वह शैली है जिसमें जीवन का सिद्धांत समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व हो. इन तीनों तत्वों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. भारतीय सन्दर्भ में समता का कोई नामो-निशान नहीं हैं सामजिक रूप से यहाँ वर्गीकृत असमानता है, मतलब एक जाति दूसरी से ऊँची या नीची है. आर्थिक आधार पर देखे तो यहाँ कुछ लोग अपार धन-दौलत वाले हैं तो कुछ भीषण गरीबी से जूझ रहे हैं.
26 जनवरी 1950  को हम ऐसे विरोधाभास में प्रवेश कर रहे हैं. राजनीति में हम समता मिलेगी पर सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमें विषमता मिलेगी. राजनीति में हम एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को अपनाएंगे लेकिन अपने सामाजिक और आर्थिक जीवन में विषमता पायेंगे क्योंकि वहाँ हमारी सामाजिक संरचना के अनुरूप हम एक व्यक्ति एक मूल्य के सिद्धांत को खारिज करते हैं.
आखिर हम कब तक सामाजिक-आर्थिक जीवन में समता को खारिज करते रहेंगे?
यदि हम लंबे समय तक समता को नहीं स्वीकारेंगे तो हमारा राजनीतिक गणतंत्र भी लंबे समय तक कायम नहीं रह पायेगा. हमें इस विरोधाभास को जितना जल्द हो दूर करना होगा नहीं तो वे लोग जो विषमता का शिकार हो रहे हैं इस राजनीतिक गणतंत्र की संरचना को उखाड फेकेंगे जिसे इस देश की संसद ने बड़ी मेहनत से तैयार किया है.

आप सभी का हार्दिक स्वागत है . आप सभी का हार्दिक स्वागत है ….इस पवित्र बेला में २६ जनवरी हमारे लिए वह अनमोल दिवस है …जहाँ से हमारी ज़िंदगी के नवीन मार्ग प्रसस्त होते हैं ..हकीकत में यही वह बिग डे है जहाँ से नए वर्ष का ….नए समाज का …नए देश और नए आदमी का आरम्भ होता है …सभी मित्रों को सभी देश वासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभेक्षा »>सप्रेम जय भीम

आप सभी का हार्दिक स्वागत है .
आप सभी का हार्दिक स्वागत है ….इस पवित्र बेला में २६ जनवरी हमारे लिए वह अनमोल दिवस है …जहाँ से हमारी ज़िंदगी के नवीन मार्ग प्रसस्त होते हैं ..हकीकत में यही वह बिग डे है जहाँ से नए वर्ष का ….नए समाज का …नए देश और नए आदमी का आरम्भ होता है …सभी मित्रों को सभी देश वासियों को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभेक्षा »>सप्रेम जय भीम